गौवर्धन पूजा-- दीपावली पंच पर्वों का महत्वपूर्ण उत्सव
देश का सर्वाधिक लोकप्रिय पंच दिवसीय महोत्सव दीपावली दीपोत्सव, दीपपर्व, ज्योतिपर्व आदि नामों से पुकारा जाता है यह पर्व वैसे तो सम्पूर्ण उत्तर भारत का महान पर्व है किन्तु ब्रज मंडल में यह पर्व मानो विशिष्ट सा बन जाता है।जब दीपावली में महालक्ष्मी माँ के पूजन के दूसरे दिन अर्थात् कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि (प्रतिपदा) को पूरे ब्रज मंडल में गोवर्धन पूजन एवं अन्नकूट महोत्सव का आयोजन किया जाता है।गोवर्धन पूजा किस कारण से की जाती है -----
ब्रज मंडल में तीन प्रसिद्ध पर्वत हैं पहला बरसाना, दूसरा नंदीश्वर (नंदगाँव) एवं तीसरा गोवर्धन। बरसाना पर्वत को ब्रह्मा, नंदीश्वर को शिव तथा गोवर्धन को विष्णु स्वरूप माना जाता है।इन तीनों पर्वतों में श्री गोवर्धन जी ही सर्वा -धिक आस्था के प्रतीक हैं।गोवर्धन पूजा के बारे में यह कहा जाता है कि इंद्र को शिक्षा देने के उद्देश्य से जब भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र पूजा बंद करवा दी और गोवर्धन पर्वत की पूजा शुरु करा दी तो इंद्र कुपित हो गये और उन्हौने ब्रजमण्डल में मूसलाधार वर्षा शुरु करा दी और इससे सम्पूर्ण ब्रज की रक्षा के लिए ब्रजराज भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठा उँगली पर उठा लिया था। यह गोवर्धन पूजा भगवान श्री कृष्ण द्वारा शुरु की हुयी गोवर्धन पूजा ही है।कहा जाता है कि गोवर्धन धारण के समय श्रीकृष्ण की आयु मात्र सात वर्ष की थी। तभी से अन्नकूट महोत्सव का प्रारंभ गोवर्धन पूजन के बाद प्रसाद वितरण प्रारंभ हुआ। गोवर्धन को देव स्वरूप मानकर घर-घर में पूजन की परम्परा गोबर से गोवर्धन बनाकर पूर्ण की जाती है।
आखिर प्रतिपल क्यों घट रहा है----गोवर्धन पर्वत
भारतीय वांड्मय में श्री गोवर्धन पर्वत को तीन बार उठाने का उल्लेख मिलता है। पहली बार पुलस्त्य मुनि द्वारा, दूसरी बार हनुमान जी द्वारा और तीसरी बार योगीराज भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसे उठाया गया। कहते हैं कि द्वापर युग का विशालकाय पर्वत था किंतु इस समय यह प्रतीक रूप में ही विराजमान है। इसके इस प्रकार से तिल-तिल घटने की कथा इस प्रकार है।
गर्ग संहिता के अनुसार एक बार महर्षि पुलस्त्य देवभूमि उत्तराखंड पहुंचे। साधना के दौरान उन्हें यह अनुभूति हुई कि गोवर्धन की छाया में भजन करने से सिद्धि प्राप्त होती है। वे सीधे गोवर्धन के पिता द्रोणाचल पर्वत के पास पहुंचे एवं भिक्षा में उनके पुत्र गोवर्धन को मांगा। द्रोणाचल ने पुलत्स्य मुनि के डर से न चाहते हुये भी मना नही किया। किंतु गोवर्धन ने एक शर्त रखी कि मैं चलूँगा मगर यदि तुमने मुझे कहीं उतार दिया और जमीन पर रख दिया तो वहीं स्थिर हो जाऊंगा।
पुलस्त्य मुनि यह शर्त मानकर उन्हें उठाकर चल दिए। जैसे ही वह ब्रज में पहुंचे, गोवर्धन को अंत:प्रेरणा हुई कि श्रीकृष्ण लीला के कर्म में उनका यहां होना अनिवार्य है। बस वे अपना वजन बढ़ाने लगे। इधर मुनि को भी लघुशंका का अहसास हुआ। मुनि ने अपने शिष्य को गोवर्धन को साधे रहने का आदेश दिया और निवृत्त होने चले गए। शिष्य ने कुछ पलों बाद ही वजन उठाने में असमर्थता जताते हुए गोवर्धन को वहीं रख दिया वापिस लौटने पर मुनि ने गोवर्धन को उठाना चाहा किंतु गोवर्धन टस से मस नहीं हुए। उसी समय मुनि ने क्षुब्ध मन से गोवर्धन पर्वत को श्राप दे दिया कि तुम तिलतिल कर घटते रहोगे। तब से गोवर्धन तिल-तिल कर घट रहे हैं।
पुलस्त्य मुनि यह शर्त मानकर उन्हें उठाकर चल दिए। जैसे ही वह ब्रज में पहुंचे, गोवर्धन को अंत:प्रेरणा हुई कि श्रीकृष्ण लीला के कर्म में उनका यहां होना अनिवार्य है। बस वे अपना वजन बढ़ाने लगे। इधर मुनि को भी लघुशंका का अहसास हुआ। मुनि ने अपने शिष्य को गोवर्धन को साधे रहने का आदेश दिया और निवृत्त होने चले गए। शिष्य ने कुछ पलों बाद ही वजन उठाने में असमर्थता जताते हुए गोवर्धन को वहीं रख दिया वापिस लौटने पर मुनि ने गोवर्धन को उठाना चाहा किंतु गोवर्धन टस से मस नहीं हुए। उसी समय मुनि ने क्षुब्ध मन से गोवर्धन पर्वत को श्राप दे दिया कि तुम तिलतिल कर घटते रहोगे। तब से गोवर्धन तिल-तिल कर घट रहे हैं।
यही कारण है कि द्वापर में तीस हजार मीटर ऊँचा पर्वत अब केवल 5000 साल बाद ही केवल 30 मीटर ऊँचा रह गया है।
इसके अलावा हनुमान जी ने गौवर्धन पर्वत कब उठाया उसके बारे में कथा है कि जब रामेश्वरम में सेतुबंध का काम चल रहा था तब हनुमान जी द्रोणागिरि से गौवर्धन पर्वत का कुछ हिस्सा लेकर आ रहे थे जब वे ब्रज क्षेत्र से गुजर रहे थे तभी उन्हैं देव अनुभूति हुयी कि सेतुबंध का कार्य तो पूर्ण हो चुका है अतः उन्हौने गौवर्धन पर्वत को वहीं स्थापित कर दिया कहा जाता है कि उस समय गोवर्धन को बहुत दुःख हुआ और उन्हौने कहा कि वे भगवान के काम नही आये। हनुमान जी ने भगवान से यह बात बतायी तब भगवान ने कहा कि द्वापर युग में मैं स्वयं उन्हैं धारण करुँगा और अपना स्वरुप उन्हैं प्रदान करुँगा।
गौधन की पूजा कैसे होती है -----
ब्रज के मंदिरों में अन्नकूट की परंपरा के अनुसार सर्वप्रथम चावल-हल्दी मिश्रित रोपन से रेखांकन किया जाता है। इसके ऊपर घास का मूठा बनाकर उसे बड़े-बड़े पत्तलों से ढक देते हैं। उसके ऊपर चावलों के कोट से गिरिराज जी की आकृति बनाते हैं। श्री विष्णु भगवान के चारों आयुधों (शंख, चक्र, गदा, पदम) के समान चार बड़े गूझे चारों भुजाओं के रूप में रख दिए जाते हैं। मध्य में बड़ा गोलाकार चंद्रमा बनाते हैं जिसे गिरिराज का शिखर माना जाता है। चावल के कोट पर लंबी तुलसी माला लगाकर केसर से सजाते हैं। एक ओर जल एवं दूसरी ओर घी की हाँडी रखी जाती है। अन्नकूट के रूप में मिष्ठान, दूध, सामग्री, मेवा, भात, दाल, कढ़ी, साग, कंद, रायता, खीर, कचरिया, बड़ा, बड़ी व अचार प्रयोग किया जाता है।